दिल्ली में लगभग चौबीस वर्ष रहा और इन चौबीस वर्षों में बीस वर्ष ब्रॉडकास्ट और म्यूजिक इंडस्ट्रीज में सक्रिय भूमिका निभाता रहा | अच्छी तनखा, मान-सम्मान-अपमान, बेरोजगारी, अकेलापन….सबकुछ जीया | लेकिन एक दिन समझ में आ ही गया कि मैं दौड़ ही गलत रहा था | ऐसी दौड़ में पड़ गया था, जो मुझे कभी भी स्वतंत्रता का अनुभव नहीं होने देती | जितना भी प्रसिद्ध होता जाता, उतना ही अकेला भी होता जाता | जितनी सेलेरी बढ़ती जाती, उतना ही खर्च और कर्ज भी बढ़ता जाता…और शायद वह दिन कभी न आता कि मैं एक निश्चिंतता को प्राप्त कर पाता | मैं ऐसे चक्रव्यूह में फंसता चला जा रहा था, जो मुझे सिवाय सर झुकाकर भेड़चाल में चलने के और कोई दूसरा विकल्प नहीं दे सकता था | जैसे कि आज का आधुनिक शहरी जीवन |
खैर मैं उससे बाहर निकल ही आया लेकिन मुझे आज भी दिल्ली के अंडे के पराठें अवश्य याद आते हैं | सर्दियों के दिनों में ये पराठें मेरी पहली पसंद हुआ करती थी | लेकिन आज मैं इन परांठों के विषय में सोच भी नहीं सकता क्योंकि तब मेरा भगवा कलंकित हो जाएगा | मेरी अपनी नजर में नहीं, बल्कि उनकी नजर में जो भगवा की ठेकेदारी लेकर बैठे हैं, जिन्होंने नैतिकता की ठेकेदारी ले रखी है |
और मुझे आश्र्चर्य होता है कि अंडा, मछली, माँस या प्याज, लहसुन खाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है | लेकिन मक्कारी करने, छल-कपट करने, दूसरों की भूमि हड़पने से, माफियाओं का साथ देने, धूर्त, मक्कार नेताओं का समर्थन करके अपने ही देश की जनता के साथ गद्धारी करने से, लोगों को मुर्ख बनाकर ठगने से, निर्दोषों मासूमों की हत्याएं करने और करवाने से, धर्म व जाति के नाम पर आपस में लड़ाने और दंगा-फसाद करवाने से, हत्यारों की जयकारा लगाने से…..न तो धर्म कलंकित होता है और न ही भगवा |
अरे मैं विशुद्ध चैतन्य हूँ, जब जो मन करेगा खाऊंगा…कम से तुम जैसे अधर्मियों से लाख गुना बेहतर ही हूँ | क्योंकि मेरा धर्म खान-पान और वस्त्रों में नहीं टिका है, दूसरों के प्रति सद्भाव और साम्प्रदायिक सौहार्द पर टिका है | तुम लोग इंसानों का खून पीकर भी सात्विक व शाकाहारी कहलाते हो, तुम लोग धर्म व जाति के नाम पर क़त्ल-ए-आम मचाकर भी धार्मिक कहलाते हो, तुम लोग करोड़ों रूपये दान लेकर डकार जाते हो मंदिर और धर्म के नाम पर, लेकिन अपने ही मंदिर के आसपास के गाँवों का भला नहीं कर पाते….और फिर भी खुद को धार्मिक-सात्विक कहते हो…..??
तुम लोगों से बड़ा ढोंगी-पाखंडी तो मैं इस जन्म में क्या, किसी भी जन्म में नहीं हो सकता |
~विशुद्ध चैतन्य

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